अय्योब 35
35 1 एलिहू ने अपना वक्तव्य चालू रखा: 2 “आपका विचार क्या है, क्या यह न्याय समझते हैं? क्या दावा है आपके उस कहने का, ‘मेरा धर्म परमेश्वर के धर्म से ऊपर है’? 3 क्योंकि आप तो यही कहेंगे, ‘आप पर मेरे पाप का क्या प्रभाव पड़ता है, और पाप न करने के द्वारा मैंने क्या प्राप्त किया है?’ 4 “इसका उत्तर आपको मैं दूंगा, आपको तथा आपके मित्रों को. 5 आकाश की ओर दृष्टि उठाओ; मेघों को अवलोकन करो, वे तुमसे ऊपर हैं. 6 जब आप पाप कर बैठते हैं, इससे हानि परमेश्वर की कैसी होती? यदि आपके अत्याचारों की संख्या अधिक हो जाती, क्या परमेश्वर पर इसका कोई प्रभाव होता है? 7 यदि आप धर्मी हैं, आप परमेश्वर के लिए कौन सा उपकार कर देंगे अथवा आपके इस कृत्य से आप उनके लिए कौन सा लाभ हासिल कर देंगे? 8 आपके दुष्चरित्रता आप जैसे व्यक्ति पर ही शोभा देती है, तथा आपकी धार्मिकता मानवता के लिए योग देती है. 9 “अत्याचारों में वृद्धि होने पर मनुष्य कराहने लगते हैं; वे बुरे काम के लिए किसी शूर की खोज करते हैं. 10 किंतु किसी का ध्यान इस ओर नहीं जाता ‘कहां हैं परमेश्वर, मेरा रचयिता, जो निराशा के अंधकार में आशा का गीत बनकर उतर जाते हैं, 11 रचयिता परमेश्वर ही हैं, जिनकी शिक्षा हमें पशु पक्षियों से अधिक विद्वत्ता देती है, तथा हमें आकाश के पक्षियों से अधिक बुद्धिमान बना देती है.’ 12 वहां वे सहायता की पुकार देते हैं, किंतु परमेश्वर उनकी ओर ध्यान नहीं देते, क्योंकि वे दुर्जन अपने अहंकार में डूबे हुए रहते हैं. 13 यह निर्विवाद सत्य है परमेश्वर निरर्थक पुकार को नहीं सुनते; सर्वशक्तिमान इस ओर ध्यान देना भी उपयुक्त नहीं समझते. 14 महोदय अय्योब, आप कह रहे थे, आप परमेश्वर को नहीं देख सकते, अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के समय की प्रतीक्षा करें. आपका पक्ष उनके सामने रखा जा चुका है. 15 इसके अतिरिक्त, परमेश्वर का कोप-दण्ड नहीं देता और न ही वह अभिमान की ओर ध्यान देते हैं, 16 महोदय अय्योब, इसलिये व्यर्थ है आपका इस प्रकार बातें करना; आप बिना किसी ज्ञान के अपने उद्गार पर उद्गार किए जा रहे हैं.”